देव दीपावली (त्रिपुरी पूर्णिमा), काशी
आज गलियों में गुज़रती इस भीड़ के संग आगे बढ़ते हुए, ऐसा लगा की गंगा जी इन गालियों में बेह रही है, और जा कर खुद में ही समा जाएंगी। मानो की, गली में यादव जी (जिनका खीरकदम लाजवाब है) को प्रणाम भी हम उसी भीड़ में बेहते हुए किये। कुछ दिन पेहले ये लोग अपनी दुर्गा मा को गंगा में विसर्जित करने के लिये इन्ही गालियों से निकले थे, उतनी ही भीड़ में, लेकिन आज इनके कंधो पर मूर्ति नहीं थी। तभी मुझे त्रिपुरासुरा की कहानी याद आई।
त्रिपुरासुरा एक नाम है, जो तीन असुरो को मिलकर दिया गया, जिन्होने ब्रह्मा से वरदान ले कर तीन शहर बनवाये, जिन्हे त्रिपुरा कहा गया। पेहले तो अमर हो जाये, ये वरदान मांगा, ब्रह्मा कहे यह तो नही हो सकता, लेकिन कह दिये की तीनो को एक हे तीर से मारा जा सकता है, जो की नामुमकिन के बराबर था। तीनो निकल पड़े सभी देवताओं को हराने के लिये, और मंज़िल के करीब ही थे, जब शिव जाग उठे और एक तीर से तीनो को मार गिराये। अगर सोचा जाये तो ये तीन शहर: अहम, कर्म और माया है, जिन्हे सिर्फ उस सार्वजनीन एकता के एहसास से ही मारा जा सकता है, यह वो एहसास है जो इन इन्द्रियों की समझ से परे है। एक तरह से, इन तीन शहरो से ही उन्नती का मार्ग निकलता है।
किसी तरह मुंशी घाट के सीडियों तक पहुचे तो एक ज़िंदादिली सी मेहसूस हुई, आस पास लोग रुक कर तस्वीरे खीचने लगे, उनमे से कुछ आसमान की तरफ देख कर चौकन्ने हो रहे थे। सामने सजी धजी सीडियाँ थी और उन पर रखे कईं दीये, जो समझो अभी पूरी तरह जले ही थे। भीड़ में एक समझौता सा था, जो भी सीडी तक पहुचा उसे उतरने से पेहले कुछ शॅंड चिंतन में जाने का हॅक है। नज़र पेहली सीडी पर लगे दीयों से चली और इन्ही दीयों के सहारे घाट की सीडियों से उतरकर, डुबकी लगाते हुए यात्रियों से होती हुई उन हज़ारो नौकायों तक पहुची, ऐसा लगा जैसे सभी नाव वाले आज यात्रियों को शशांक की ओर ले जा रहे है, आखिर कार इस चांदनी की चादर को ओढ़कर हम भी चाँद तक पहुचे, जो यादव जी की मिठाई की दुकान के खीर कदम से भी कही गुना स्वादिष्ट लगा।
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